छिंदवाड़ा से लगभग 90 किलोमीटर की दुरी पर तहसील पांढुर्णा में विश्व प्रशिद्ध गोटमार मेले का आयोजन प्रति वर्ष होता है। चुकी यह स्थान महाराष्ट्र राज्य की सिमा से लगा हुआ होने के कारन इस क्षेत्र अधिकतर लोग बोलने में मराठी भाषा का उपयोग करते है। गोटमार शब्द भी मराठी भाषा से सम्बंधित है, जिसका अर्थ पत्थर मरना।
गोटमार मेले का आयोजन हर वर्ष भादो मास के कृष्ण पक्ष में अमावस्या पर पोला त्योहार के दूसरे दिन किया जाता है। इस विचित्र मेले की ख्याति दूर-दुर तक फैली हुई होने के कारन इसके आयोजन पर भी लोग दूर-दूर से यहाँ आते है।
मेले का आयोजन जाम नदी के तट पर किया जाता है, गोटमार मेला के आयोजन के पूर्व यहाँ पर नदी के बीचो बीच एक पलाश के पेड़ पर विशाल और लम्बा झंडा लगाया जाता है।
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इस मेले के आयोजन के दिन सुबह से ही ‘सावरगांव’ और ‘पांढुर्णा’ के निवासी नदी के दोनों किनारों पर इकट्ठा होने लगते हैं, और एक ओर वाले दूसरी ओर वाले को पत्थर से मारते है।
वास्तव में यह मेला एक प्रतियोगिता स्वरुप प्रतीत होती है क्यों की जो भी नदी के बिच में लगे झंडे को लेकर आएगा उस गांव को विजयी माना जाता है।
परन्तु यह इतना आसान नहीं होता क्यों की दोनों ओर से लगातार पत्थरो की बौछार के बीच जाकर उस झंडे को लाना सरल नहीं होता है।
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गोटमार मेला के दौरान कई लोग घायल हो जाते है परन्तु इस दुर्लभ मेले का अस्तित्व बचाने के लिए जिला प्रशासन सुचारू रूप से मेले का आयोजन एवं विस्तृत व्यवस्था करता है।
300 साल पुरानी है गोटमार मेले की परंपरा/Gotmar fair tradition is 300 years old
ऐसा बताया जाता है कि गोटमार मेले की शुरूआत लगभग 17 वीं शताब्दी में हुई थी। मान्यता के अनुसार सावरगांव की एक लड़की को पांढुर्णा के किसी लड़के से प्रेम था जिसे पांढुर्ना का लड़का उस सावरगांव की लड़की को चोरी-छिपे घर से भगा कर ले के जा रहा था।
उस समय लड़की के घर वालो को ये बात पता चल गई और गांव वालो के साथ मिल कर उनका पीछा करना शुरू कर दिया जब वे नदी पार कर रहे थे उस समय उन पर पत्थरो से हमला करने लगे, तब तक यह बात पांढुर्ना के लोगो को पता चल गई और ओ भी वह आ पहुंचे और दोनों ओर से पत्थराव शुरू हो गया।
दोनों गांवों के लोगों के द्वारा किए गए पथराव से उन प्रेमी जोड़े की नदी में ही मौत हो गई थी। इसके बाद दोनों पक्षों के लोगों को अपने किये पर शर्मिंदगी का अहसास हुआ और दोनों प्रेमियों के शवों को उठाकर क्षेत्र में स्थित मां चंडिका के दरबार में ले जाकर, पूजा-अर्चना करने के बाद दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया।
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इसी घटना की याद में प्रति वर्ष मां चंडिका की पूजा-अर्चना कर गोटमार मेले की शुरुवात की जाती है।
धार्मिक आस्था का प्रतीक|Symbol of religious faith
पांढुर्णा के पास से बहने वाली जाम नदी के किनारे इस मेले का आयोजन होता है, मेले के स्थान पर एक ओर पांढुर्णा और दूसरे ओर सावरगांव है, पांढुर्ना महारष्ट्र राज्य की सिमा से लगा हुआ है। यहां पर बैलों का त्यौहार पोला बहोत धूमधाम से मनाया जाता है।
इसके दूसरे दिन यहाँ पर गोटमार मेले का आयोजन होता है। सावरगांव के निवासी, कावले परिवार की पुश्तैनी परम्परा के अनुसार जंगल से पलाश के पेड़ को काटकर घर पर लाने के बाद उस पेड़ की अच्छे से सजा कर लाल कपड़ा, तोरण, नारियल, हार चढ़ाकर पूजन किया जाता है।
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दिन भर चलते हैं पत्थर|The stones move throughout the day
ढोल-नगाड़ो के बीच पत्थरो की बरसात दिन भर होती है कभी पांढुर्णा वाले झंडे की ओर बढ़ते तो कभी सावरगांव वाले। दोनों पक्ष एक-दूसरे को पत्थर मारकर पीछे हटाने का प्रयास करते है।
दोपहर बाद 3 से 4 के बीच में पत्थरों की बारिश बढ़ जाती है। इसी बीच पांढुर्ना के लोग कुल्हाड़ी सहायता से झंडे को तोड़ कर वहां से लेन की कोशिश करते हैं। इसे रोकने के लिए सावरगांव के लोग उन पर पत्थरों की बारिश करते रहते हैं।
प्रसाशन द्वारा यहाँ घायलों के इलाज के लिए डॉक्टरों की एक टीम भी रहती है जो घायल हुए लोगो का उपचार करते है।
झंडे के कटते ही रुक जाती है पत्थरबाजी|Stoning stops soon after the fall
शाम होते होते पांढुर्णा पक्ष के लोग पूरी ताकत से चंडी माता का जय करा लगते हुए झंडे को पाने का प्रयाश करते है जैसे ही झंडे टूट जाता है तब दोनों ओर से पत्थर रुक जाते है।
दोनों पक्ष पत्थर मारना बंद करने के बाद आपस में मेल-मिलाप करते हैं और गाजे बाजे के साथ चंडी माता के मंदिर में झंडे को ले जाते है और पूजा अर्चना करते है।
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यदि झंडा न तोड़ पाने की स्थिति में शाम को साढ़े छह बजे प्रशासन द्वारा आपस में समझौता करवाकर गोटमार बंद करवा दिया जाता है।
प्रशासनिक कार्रवाई|Administrative action
यह गोटमार मेला आस्था से जुड़ा होने के कारण सरकार इसे रोक पाने में असमर्थ रही है, प्रशासन व पुलिस यहाँ पर खून बहते हुए लोगों को असहाय देखते रहने के अलावा और कुछ नहीं कर पाती है।
कभी कभी निर्धारित समय पर पत्थरबाजी समाप्त कराने के लिए प्रशासन और पुलिस के अधिकारियों को बल उपयोग भी करना पड़ता है।
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एक बार प्रशासन ने पत्थरों स्थान पर तीस हजार रबर की छोटे साइज की गेंद उपलब्ध कराई थी, परंतु दोनों गांवों के लोगों ने गेंद का उपयोग नहीं करने का निर्णय किया और पत्थर ही इस्तेमाल करने पर अड़े रहे। हार कर प्रशासन ने दोनों गांवों के लोगों के लिए नदी के दोनों किनारों पर पत्थर उपलब्ध कराना शुरू कर दिया था।
लेकिन साल 2009 में मानवाधिकार आयोग के निर्देशों के बाद छिंदवाड़ा जिला प्रशासन ने पांढुर्णा एवं सावरगांव के बीच होने वाले गोटमार मेले में पत्थर फेंकने पर रोक लगाते हुए मेला क्षेत्र में छह दिनों के लिए धारा 144 लागू कर दी थी लेकिन उसके बाद फिर से यहाँ मेला अपनी तय समय पर होता है.